शास्त्री राहुल सिंह कुशवाहा

👉भगवान बुद्ध किस अर्थ में शाक्य मुनि कहे जाते थे❓

🌷जो काया ,वाणी और मन से मौन है । वही मुनि है🌷

अर्थात जो शरीर , वाणी और मन से शांत है। वह मुनि है। यहां शान्त होने से अभिप्राय सभी प्रकार के अकुशल (पाप) कर्म न करने, तृष्णा (भोगों के प्रति इच्छा) न करने और चित्त की शुद्धता बनाये रखने से है।🌷

विस्तार के लिए नीचे दिया गया मनिसुत्त पढ़े।:–

🌹12. मुनिसुत्त (१,१२)🌹

🍁(सुत्तनिपात)🍁

(मुनि कौन है?)

मेल-जोल से भय उत्पन्न होता है और

घर-गृहस्थी से रज (=राग, द्वेष और मोह) उत्पन्न होता है,

इसलिए मेलजोल न करना और

घर-गृहस्थी में न रहना उत्तम है –

ऐसा बु्द्ध-मुनि ने देखा है।। १।।

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जो उत्पन्न हुए पाप को काटकर फिर न लगाये और

उसके उत्पन्न होने पर बढ़ने न दे,

उसे एकान्तचारी मुनि कहते हैं,

उस महर्षि ने शान्ति-पद (=निब्बान) को देख लिया है ।।२।।

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वस्तुस्थिति को भली प्रकार जानकर,

संसार में उत्पन्न करने वाले बीज (=तृष्णा) को नष्ट कर,

उसे स्नेह नहीं प्रदान करता है, और

जो तर्क को त्याग कर अलौकिक हो गया है,

जन्म के क्षय (=निर्वाण) का दर्शी वही मुनी कहलाता है।।३।।

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सभी काम-लोक आदि को जानकर,

उनमें से किसी में भी रहने की कामना न करता हुआ,

राग-रहित, आसक्ति रहित वही मुनि है,

वह पुण्य-पाप का संचय नहीं करता है,

वह तो पारंगत हो जाता है।।४।।

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जिसने सबको जीत लिया है,

सब कुछ जान लिया है, जो प्रज्ञावान् है,

जो सभी धर्मों (=अवस्थाओं) में लिप्त होने वाला नहीं है,

जो सर्वत्यागी है, तृष्णा के क्षय से विमुक्त हो गया है,

उसे भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।५।।

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प्रज्ञा और शील-व्रत से युक्त,

एकाग्रचित्त, ध्यान में लीन,

स्मृतिमान्, बन्धन से मुक्त और

सम्पूर्ण रुप से जो आश्रव रहित है,

उसे भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।६।।

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अकेले विचरण करने वाले अप्रमादी,

निन्दा और प्रशंसा से विचलित न होने वाले , सिंह की भाँति किसी भी प्रकार के शब्दों से न डरने वाले,

जाल में हवा के न फँसने के समान,

कमल के जल से न लिप्त होने की भाँति,

दूसरों को मार्ग दिखाने वाले और

दूसरों का अनुयायी न बनने वाले को भी ज्ञानी लोग मुनि कहते है।।७।।

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जो स्नान करने के घाट पर खम्भे की भाँति स्थिर रहता है,

उसके ऊपर दूसरों की बातों का असर नहीं पड़ता,

उस वीतराग और संयत इन्द्रिय वाले को भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।८।।

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जो ढरकी (=तसर) की भाँति ऋजु और स्थिर चित्त वाला है,

जो पाप-कर्मों से घृणा करता है और

जो अच्छे-बुरे कर्मों का ध्यान रखता है,

उसे भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।९।।

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जो संयमी है, पाप नहीं करता है,

जो मुनि बचपन और मध्य आयु में संयमी रहता है ,

जो दूसरे किसी द्वारा क्रोधित नहीं किया जा सकता और

जो दूसरों को क्रोधित भी नहीं करता है,

उसे भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।१०।।

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जो अग्रभाग, मध्यभाग या अवशेष भाग से भिक्षा लेता है,

जिसकी जीविका दूसरों के दिये पर निर्भर है, जो दायक की प्रशंसा और निन्दा नहीं करता, उसे भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।११।।

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जो मुनि मैथुन से विरत होकर अकेले विचरण करता है,

जो यौवन में भी कहीं आसक्त नहीं होता,

जो मद के प्रमाद से विरत तथा मुक्त है,

उसे भी ज्ञानी लोग मुनि करते है।।।१२।।

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जिसने अपने ज्ञान से लोक को जान लिया है, जो परमार्थदर्शी है,

जो सांसारिक बाढ़ और भव-सागर को पार कर स्थित हो गया है,

उस बन्धन-हीन, अनासक्त और अनाश्रव को भी ज्ञानी लोग मुनि कहते हैं।।१३।।

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स्त्री के पालन-पोषण में लीन गृहस्थ और व्रतधारी भिक्खु में कोई समता नहीं,

दोनों समानतारहित और एक दूसरे से बहुत दूर रहने के स्वभाव वाले है,

क्योंकि गृहस्थ असंयमी और दूसरों की हिंसा में रत होता है,

जब कि मुनि नित्य संयम की रक्षा करता है ।।१४।।

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जैसे आकाशचारी नीले गर्दन वाला मोर कभी भी उड़ान में हंस की बराबरी नहीं कर सकता, वैसे ही गृहस्थ भिक्खु की बराबरी नहीं कर सकता,

जो कि मुनि एकान्त वन में रहकर ध्यानलीन रहता है।।१५।।

मनिसुत्त समाप्त।

उरगवग्ग समाप्त।

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